मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

"बेईमानी या नमकहरामी??"

"बेईमानी से नमकहरामी बेहतर है!!"

मेवाड़ के महाराणा लाखा किसी बात पर बूंदी राज्य के हाड़ों से नाराज हो गए और उन्होंने प्रण कर लिया कि जब तक वे बूंदी नहीं जीत लेते अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे | महाराणा के सरदारों ने महाराणा लाखा को बहुत समझाया कि इतनी जल्दी किसी राज्य को जीतना इतना आसान नहीं और वो भी बूंदी के विकट वीर हाड़ा राजपूतों को | जिनके शौर्य का डंका हर कहीं बजता है | पर महाराणा लाखा तो प्रण कर चुके थे अब मेवाड़ के सरदारों के सामने एक भीषण समस्या उत्पन्न खड़ी हो गयी थी न तो इतनी जल्दी बूंदी के हाड़ा राजपूतों को हराया जा सकता था और न ही बिना जीते महाराणा अपने प्रण से पीछे हटने वाले थे |

आखिर मेवाड़ के सरदारों ने आपसी मंत्रणा कर एक बीच का रास्ता निकाला और महाराणा लाखा के आगे प्रस्ताव रखा। अभी चितौड़ के किले के बाहर बूंदी का एक मिटटी का नकली किला बनवाकर उस पर आक्रमण कर उसे जीत लेते है इस तरह बूंदी पर प्रतीकात्मक तौर पर विजय हासिल कर आप अपना प्रण पूरा कर लीजिये | असली बूंदी बाद में कभी भी जीत ली जाएगी | महाराणा को भी अपने सामन्तो की यह बात जच गयी | और चितौड़ किले के बाहर बूंदी का एक प्रतीकात्मक मिटटी का नकली किला बनवा दिया गया |

बीस पच्चीस घुड़सवारों व अपने कुछ सामंतो के साथ महाराणा लाखा इस नकली "बूंदी" को फतह करने निकले और बूंदी के नकली किले पर आक्रमण के लिए आगे बढे | तभी एक सप्प करता हुआ तीर अचानक महाराणा लाखा के घोड़े के ललाट पर आकर लगा | घोड़ा चक्कर खाकर वहीं गिर गया और महाराणा कूद कर एक और जा खड़े हुए,तभी दूसरा तीर आया और एक सैनिक की छाती को बिंध गया | उन्हें समझ ही नहीं आया कि इस नकली बूंदी से कौन उनका विरोध कर रहा है ? ये तीर अचानक कहाँ से आ रहे है ?

तभी महाराणा का एक सामंत दूत बनकर बूंदी के नकली किले की और रवाना हुआ। दूत ने जाकर देखा कि वहां एक बांका नौजवान अपने कुछ साथियों सहित शस्त्रों से सुसज्जित केसरिया वस्त्र धारण किये उस नकली किले की रक्षार्थ मौर्चा बांधे खड़ा है | ये बांका नौजवान बूंदी का हाड़ा राजपूत कुम्भा था जो महाराणा की सेना में नौकरी करता था पर आज जब उसके देश बूंदी व हाड़ा वंश की प्रतिष्ठा बचाने का समय आया तो वह अपने दुसरे हाड़ा राजपूत वीरों के साथ मेवाड़ की सेना का परित्याग कर उस नकली बूंदी को बचाने वहाँ आ खड़ा हुआ |

सामंत ने कुम्भा को समझाया और महाराणा का प्रण याद दिलाया कि यदि महाराणा का प्रण पूरा नहीं हुआ तो बिना अन्न जल उनके जीवन पर संकट आ सकता है तुम महाराणा के सेवक हो उनका तुमने नमक खाया है इसलिए यहाँ से हट जाओ और महाराणा को नकली बूंदी पर प्रतीकात्मक विजय प्राप्त कर अपने प्रण का पालन करने दो | ताकि उनके प्रण का पालन हो सके |
इस पर कुम्भा ने कहा - "महाराणा का सेवक हूँ और उनका नमक खाया था इसीलिए तीर महाराणा को नहीं उनके घोड़े को मारा था,आप महाराणा से कहिये बूंदी विजय का विचार त्याग दे | बूंदी मेरा वतन है इसीलिए ये मेरे देश व हाड़ा वंश की प्रतिष्ठा से जुड़ा है |"
" पर यह तो नकली बूंदी है जब असली बूंदी पर महाराणा चढ़ाई करे तब तुम उसकी रक्षा व अपने वंश की प्रतिष्ठा बचाने के लिए चले जाना |"
"मेरे लिए तो ये असली बूंदी से कम नहीं उससे भी बढ़कर है , जो नकली बूंदी के लिए नहीं मर सकता वह असली बूंदी के लिए भी नहीं मर सकता है | महाराणा जब असली बूंदी जीतने पधारेंगे तो वहां अपनी प्रतिष्ठा बचाने वाले और कई हाड़ा मिल जायेंगे | इसलिए जाओ और महाराणा से कहो अपना ये विचार त्याग दे |"
"तुम नमकहरामी कर रहे हो कुम्म्भाजी |" सामंत ने कहा |
" महाराणा का नमक खाया है वे मेरे इस सिर के मालिक तो है पर इज्जत के नहीं | यह प्रश्न केवल मेरी इज्जत का नहीं, हाड़ा वंश और अपनी मातृभूमि की इज्जत का है, इसलिए महाराणा मुझे क्षमा करें |"
आखिर कुम्भा हाड़ा के न हटने पर महाराणा घोड़े पर सवार हुए और सैनिको को नकली बूंदी पर आक्रमण का आदेश दिया तभी कुम्भा जी ने महाराणा से पुकारा - " ठहरिये अन्नदाता ! आपके साथ आपके साथ कम सैनिक है इसलिए कदाचित आप इस नकली बूंदी को भी नहीं जीत पाएंगे | एक प्रतिज्ञा पूरी न होने पर दूसरी प्रतिज्ञा पूरा करने का आपको अवसर ही नहीं मिलेगा इसलिए आप किले से एक बड़ी सैनिक टुकड़ी मंगवा लीजिये | बूंदी की भूमि इतनी निर्बल नहीं जिसे आसानी से विजयी की जा सके |
महाराणा कुछ देर के लिए अपनी सैनिक टुकड़ी के आने के इन्तजार में ठहर गए | उधर चितौड़ के दुर्ग की प्राचीर व कंगूरों पर खड़े लोग नकली बूंदी विजय अभियान देख रहे थे | उन्होंने देखा सैकड़ो घोड़े और हाथी सजधज कर नकली बूंदी की और बढ़ रहे है एक पूरी सेना ने बूंदी के नकली किले को घेर लिया है और उस पर आक्रमण शुरू हो गया | हर हर महादेव का उदघोष चितौड़ किले तक सुनाई दे रहा था | सभी लोग अचम्भित थे कि - नकली बूंदी के लिए यह युद्ध कैसा ? कोई उसे वास्तविक युद्ध समझ रहा था तो कोई उसे युद्ध का अभिनय समझ रहा था |
घड़ी भर महासंग्राम हुआ | दोनों और तीरों की बौछारें हुई मेवाड़ के कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए तो सैकड़ों हताहत हुए | आखिर महाराणा की नकली बूंदी पर विजय के साथ प्रतिज्ञा पूरी हुई |

आपका

सत्येन भंडारी

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

"सटक सीताराम"

काका जोगिंदर सिंग 'धरती पकड़'..........सुना तो होगा यह नाम!! ये एक सामान्य नागरिक थे जो हमेशा राष्ट्रपति के चुनाव में शिरकत किया करते, बतौर उम्मीदवार। जीतने का प्रश्न ही नहीं था, पर चर्चा बडी होती इनके नाम की।

मेरे शहर, अकोला (महाराष्ट्र) के भी 'धरती पकड़' थे एक! चतुर्वेदी थे, पूरा नाम याद नहीं आ रहा। विधानसभा व लोकसभा के चुनावों में बडे उत्साह से उम्मीदवारी किया करते। 'साइकिल', चुनाव चिन्ह होता। चुनाव के दिनों में अपनी साइकिल को ब्रासो से चमकाए रखते और इसी पर बैठ कर ही सारा चुनाव-प्रचार करते अपना। निपट अकेले!! चाय की गुमटी, पान-सिगरेट की टपरियाँ और शहर का हर नुक्कड़, सभास्थल होते उनके। सत्तर वर्ष के पंडित चतुर्वेदी जी का उत्साह देखते ही बनता इन दिनों। यह समय सत्तर के दशक का पूर्वार्ध है।

पर हम बच्चों में इनकी लोकप्रियता कुछ अलग ही कारणों से थी। गोरे-चिट्टे, लंबे-छरहरे पंडित जी आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। लक-दक शुभ्र धोती-कुर्ता, चमकदार पॉलिश किए हुए जूता व गौर मुख पर शानदार चंदन-रौली का टीका, खूब फबता उनपर। इन सब विशेषताओं से अलग वह बात जो उनकी लोकप्रियता का कारण थी, वह थी उनका 'जय सिया-राम' के उद्घोष से भयंकर चिढ़ना। जब भी कोई नवागंतुक, उनका अभिवादन करते हुए कहता;

"जय सिया-राम, पंडी जी!!", तो वे समझाने के स्वर में कहते....

"जय राधे-श्याम बोलो बेटा....जय राधे-श्याम!!"

समझाना बेअसर होते देख, बेतरह चिढ़ जाते। धीरे-धीरे लोग चिढ़ाने लगे उन्हें। हम बच्चों के लिए बडी मजेदार स्थिति हो जाती। पंडित जी का क्रोध से लाल हुआ चेहरा देख, हँस पड़ते हम। ज़रा कल्पना कीजिए, पंडित जी सामने से आ रहे हैं और हममें से कोई अभिवादन कर रहा है.....

"पा लागी पंडिज्जी!!!"

"जीते रहो बचवा!!!", वे हाथ उठा आशीर्वाद दे रहे होते कि तभी कोई अन्य नारा लगा देता....

"जय सिया-राम पंडित जी!!!", और वे भड़क जाते.....चिल्ला कर कहने लगते;

"ठहर, ससुर के नाती!!! बताता हूँ तुझे...नालायक, हरामखोर मुझे चिढ़ाते हो??"

कई बार मारने भी दौड़ते। हम भाग जाते। कभी हाथ न आए उनके। पता नहीं क्या हाल करते जो हत्थे लग जाते। बस यही पता न था क्योंकि कभी किसी को धर ही नहीं पाए थे अबतक वे। शरारती तत्वों को पहचानने लगे थे और हम भी उन्हें देखते ही, 'सटक ले, सियाराम आ रहे हैं!', कह कर एक दूजे को सावधान कर देते। सारा शहर उन्हें, "सटक-सीताराम", के नाम से पहचानने लग पडा।

और फिर एक दिन, अपनी शाणपत्ती के चलते, हम धर लिये गये। हमारे पकड़े जाते ही सारी सेना भाग खडी हुई। हम कोहनियों को मोड़े, अपने हाथों व हथेलियों के बीच कान, गालों व सिर को छिपाये, अपनी आंखें मीचे, चीख-चीख कर माफी मांग रहे थे.....

"माफ कर दीजिये पंडित जी.....दुबारा नहीं करेंगें, इस बार माफ कर दीजिये!!!"

वे नहीं पसीजे। मुर्गा बना दिया हमारा। पांच ही मिनट में सारी हेकड़ी निकल गई। पसीने से लथपथ, हम उन्हें उनके ईष्टदेव का वास्ता देने लगे.....

"आपको श्रीकृष्ण भगवान की सौगंध, छोड़ दीजिये हमें.....आगे से नहीं करेंगे।"

वे सुनने को ही राजी नहीं। दस मिनट होते-होते हमारी हालत खराब हो चुकी थी। आखिर रोने लगे हम और बिसूरते हुए लानतें भेजने लगे उनपर......सजा तो मिल ही रही थी, मुंह खुल गया हमारा..

"अपने आपको पंडित कहलाते हो.....आखिर क्या फर्क है राम भगवान और कृष्ण भगवान में जो एक के नाम पर चिढ़ जाते हो और दूसरे के नाम पर प्रसन्न होते हो? इतनी देर से चिरौरी कर रहा हूँ, आप पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता!!! देख लेना आपके कृष्ण भगवान कितना पाप देते हैं? पिछले जनम में वही राम भगवान थे!!", कहते हुए और रोने लगे हम! हमारा रूदन तब और बढ़ गया जब पंडित जी को ठहाके मारकर हँसते देखा हमने। लगा, शायद पंडी जी को दया आ गई हो क्योंकि वे हमें सीधे खडे होने को कह रहे थे। हम खडे हो शरीर को सीधा कर रहे थे, भाग नहीं सकते थे। पकड़ रखा था उन्होंने। वे कहने लगे;

"क्यों? आ गई नानी याद? जानना चाहते हो क्यों चिढ़ते हैँ हम? सुनो.....तुम ससुर के नाती, बित्ते भर के लौंडे, ठीक से नाक नहीं पोंछ पाते हो, दिन भर 'हम-तुम एक कमरे में बंद हो' गाते रहते हो, कम से कम इसी बहाने भगवान का नाम तो ले लेते हो!! तुम्हारे माता-पिता को तो कोई चिंता है नहीं कि लौंडे, लफाडिये हो रहे हैं....वे भी ससुर 'बॉबी' के प्रशंसक हो रहे हैं.....तो हमने यह जुगत लगाई। पर बिटवा, तुमने जो यह बात किसी को बताई तो याद रखना, हमसे पाला है!! समझे कि नाहीं?"

हम, बालक बडे समझदार थे। समझ गए। किसी को कुछ बताया तो नहीं ही, पर दूसरे ही दिन से पंडिज्जी को चिढ़ाने में उत्साह दुगना हो गया था हमारा;

"जय जय सीताराम पंडित जी!!!"

वे भी उतने ही क्रोध से गालियां देते, पीछे पडे रहते हमारे!!!

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

"एक आदमी...बासठ रुपया!!!"

"एक आदमी.... सत्तावन रुपया!!!"

'तृप्ति डाईनिंग हॉल' के वेटर की, अपने पूर्ण वाल्यूम पर की गई घोषणा से, पूरा हॉल गूंज उठा। हॉल में बैठे अन्य ग्राहक चौंक पड़े। सारे के सारे, चित्रलिखित से, आंखों में विस्मय के भाव लिये, मुझे घूर रहे थे। उनकी आंखों में, 'यह कौन बकासुर है यार?', के भाव किसी को भी शर्मिंदा करने को पर्याप्त थे।  मैं, चुपचाप, नज़रें चुराता हुआ, बिल पे करने हेतु गल्ले की ओर बढ़ लिया।

यह 1985 की बात है। औरंगाबाद, महंगा शहर था। सैलरी होते ही दो-एक बार मैं यहाँ खा लेना अफोर्ड कर लेता था। पूरे महीने, मेस का नीरस खाना खाने के बाद, यहाँ का लज़ीज खाना खा, 'तृप्ति' का अनुभव होता। सामान्यतः बीस-बाईस रुपयों में मस्त खाना हो जाता। उस डाईनिंग हॉल का वेटर, खाने का हिसाब रखता और गल्ले पर बैठे अपने मालिक को चिल्ला कर बिल की राशि बताया करता। मैंने कई बार उससे कहा कि 'अपना' बिल चिल्लाया मत कर! उसके अपने प्रैक्टीकल प्राबलेम्स थे, वह नहीं सुनता। मैं मन ही मन, 'हरामखोर', कह अपनी भड़ास निकाल लिया करता।

ऐसे ही एक दिन मैंने वहाँ खाना खाया, मस्त टहलते-टहलते गुलमंडी पहुंचा, अपने मनपसंद 'कराची पान सेंटर' पर पान खा, गजराज की भांति झूमते हुए रात दस के करीब अपने रूम पर पहुंचा, तो देखा पिताजी आए हुए हैं। रूम पर ताला पड़ा देख बाहर रखी कुर्सी पर बैठे मेरी राह देख रहे हैं।

"थे कदे आया? (आप कब आए?)"

"वो सब छोड़....मुझे बडे जोरों की भूख लगी है। पहले भोजन करवा दे!"

चिंता की बात न थी। पर्स भरा हुआ था.....मैंने कहा;

"चलिए, पहले आपको भोजन करवा लाता हूँ!!",

API में कार्यरत मेरे रूममेट, Shashikant Shastri, अपने घर परभणी गए हुये थे। उनकी नई बाइक पर उन्हें ले आया मैं अपने मनपसंद स्थान, 'तृप्ति डाईनिंग हॉल' पर। आखिर वे पिता थे मेरे.... पांच परौंठे, गट्टे का साग, बैंगन की भाजी, दाल, दही और पापड़...भूखे हो गए थे, भरपेट खाया। मैं सारा समय कौतुक से देखता रहा उन्हें। वे खाते हुए तारीफ़ भी कर रहे थे, खाने की। उनके चेहरे पर संपूर्ण 'तृप्ति' के भाव देख, दिल को सुकून मिल रहा था मेरे।

"एक आदमी..... बासठ रुपया!!!", ललकार सुनते ही पिताजी चौंक पडे.....

"अबे, बडा महंगा खाना है यहाँ तो....", वे कह रहे थे।

"आपको मज़ा आया न....बस तो फिर!!", मैंने कहा।

मित्रों, जुलाई में पुत्र के विवाह का भोजन बडा स्वादिष्ट था। मेहमान तृप्त होकर, तारीफ़ें करते गए। कैटरिंग का लंबा-चौड़ा बिल अदा किया मैंने....पर सच कहता हूँ, बासठ रुपयों का बिल अदा करते हुए जो संतुष्टि मिली थी न, उसकी कोई सानी नहीं!!!

बुधवार, 21 सितंबर 2016

"उपहार"


जैसे ही बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां शुरू होतीं, मेरा मन ललक उठता मायके जाने को। एक भारतीय स्त्री ही अनुमान लगा सकती है इस इच्छा की प्रबलता का। बस के शहर छोड़ते ही ऐसे महसूस होता, जैसे किसी बंदी को जेल से छूटने पर होता होगा। फिर जैसे ही यह मेरे पितृनगर में प्रवेश करती, मेरे भीतर की अल्हड युवती एक अंगड़ाई लेकर जाग रही होती। मेरी छुट्टियां 15 से 20 दिन की होतीं।

इन छुट्टियों का सबसे बडा आकर्षण था मेरी ननिहाल। मेरे गृहनगर से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर, लगभग ढाई-तीन हजार की बस्ती वाला, एक छोटी सी पहाड़ी की तलहटी में बसा सुरम्य खेडा। मेरे नाना किसान थे। इनका घर खेत से लग कर ही था। मेरे बचपन का स्वर्ग था यह रम्य स्थान। मेरे नाना के चार पुत्रों व तीन पुत्रियों के बच्चों से पूरा गांव चहकता सा लगता। पिछले बीस वर्षों में काफी कुछ बदला, पर मेरे ननिहाल का आकर्षण अबाध रहा। विवाह के पहले पांच वर्षों तक तो पता ही न चला कि पिता के अवसान के साथ ही खेती बंट गई थी मामाओं में। नई व्यवस्था ने काफी फर्क कर दिया था, पर जब सब एकत्र आते छुट्टियों में तो लगता ही नहीं कि कुछ बदला है। वो तो जब मामा लोगों के घर भी अलग हो गए, तब पता चला। लगा कुछ टूट सा रहा है। सभी मामा हम बच्चों को डांटते हुए समझाते कि यह तुम लोगों की चिंता नहीं। तुम लोगों का काम है कि आओ और सब कुछ भूल कर, मजा करो। आज भी मजा करते हैं हम।

नीरू मामी मेरी बडी करीब थी। मुझसे केवल दो वर्ष बडी। मामा पांच वर्ष बडे थे मुझसे और अपने भाईयों में सबसे छोटे। बंटवारे के पश्चात सबसे निर्धन यही थे। सखी समान मामी से खूब बनती मेरी। मेरी हर फरमाईश इन्हींसे होती। पिछले बीस वर्षों में यह भी एक रिश्ता था जो अबाध है अबतक। संजीव (मेरे पति) और चंदू मामा में भी खूब छनती।

इस बार जब मैं नीरू मामी के यहां आई तो स्थितियां गंभीर दिखीं। पिछले दो वर्षों की कमतर वर्षा ने हालत ख़राब कर रखी थीं। मैं हमेशा की भांति चार दिन रही नीरू मामी के साथ। हमेशा की ही भांति संजीव सीधे यहीं पहुंचे, मुझे लेने। आज हम दोनों निकल रहे हैं। मामी ने शानदार भोजन बनाया है। संजीव के चटोरेपन को ध्यान में रख सब आयोजन किया गया है। मामा और संजीव ने साथ में भोजन किया और तृप्त हो पान खाने चल दिये हैं। मुझे नीरू मामी से भावभरी विदा लेने का अवसर मिल गया है। पर वे हैं कहाँ ? उनके कमरे में झांक कर देखा, वे अलमारी से कुछ निकाल रही थीं।

"तुम्हारे मामा के साथ पिछले बाज़ार में तुम्हारे लिए उपहार लिया है। इस बार मना मत करना।"

"मामी, तुम जानती हो न संजीव को पसंद नहीं यह...फिर क्यों धर्मसंकट में डाल रही हो ?"

संजीव कभी कुछ न लेते किसी से। हाँ, नानाजी को कभी इंकार नहीं किया था उन्होंने। वे जो हाथ में रखते, चुपचाप ले लिया करते। बाकी किसी से नहीं। कभी किसी अवसर पर, काफी जिद की जाती तो शगुन मानकर एक रूपए का सिक्का उठा लेते।

"बेटी, हर बार तुम आती हो...कितना कुछ दे जाती हो.... जिसका मोल नहीं लगाया जा सकता उस स्नेह की बारिश में पूरे साल भीगे रहते हैं हम दोनों, पर तुम कभी कुछ नहीं लेतीं ! इस बार तुम्हारे मामा का मन है, उसे रख लो। कोई मूल्यवान उपहार तो नहीं है पर स्नेह भरा है इसमें हम दोनों का। तुम्हारे मामा, संजीव को इसीलिए हटा ले गए हैं यहाँ से। ...और कदाचित अपने अश्रू छुपाने हेतु खुद भी हट गए।" सखी, माँ सी लग रही थी...

नीरू मामी के नयन भर आए थे और मेरे भी। मेरे पास इंकार की वजह नहीं थी कोई। मैंने देखा, वह एक चटख लाल रंग की साधारण सी सूती साडी थी। संजीव को ऐसे रंग व टेक्श्चर बडे पसंद आते थे। चतुर नीरू मामी ने ध्यान रखा था इस बात का। चंदू मामा और संजीव पान खाकर आ चुके थे।

"चलो, निपट गया क्या सब ? नीरू, बस का समय हो गया है...!!!"

नीरू मामी को प्रश्न भरी मुद्रा से निहारते हुए मामा भीतर आ रहे थे। नीरू मामी की हाँ में हिलती गर्दन को देखते ही उनकी आंखों में भी तिनका पड़ गया था। मेरी आंखों में आंसू थे और हाथों में ? हाथों में था, जीवन का सबसे मूल्यवान उपहार !!

सोमवार, 5 सितंबर 2016

"आखिर कब तक???"

"आखिर कब तक???"

"ए...देख उधर, आ गया नमूना! कैसे भला एडमिशन मिल गया उसे ऐसी विख्यात कॉलेज में? छी बाबा!"

"हाँ यार, उसके कपड़ों को देख....पांव की चप्पल देख। कोई पूछ ले या किसी को बताना पड़े कि यह मेरे कॉलेज और उसमें भी मेरी ही क्लास में पढ़ता है तो भद्द पिट जाए...so disgusting, I tell you.."

सहेलियों को कहते सुना तो मृणालिनी उत्सुकता से देखने लगी उसे। नए वर्ष का पहला दिन था कॉलेज में। आबनूसी वर्ण व अत्यंत ही साधारण शरीरयष्ठि वाला लड़का था वह। चेहरे पर चेचक के हल्के दाग उसे और कुरूप बना रहे थे। सचमुच इतने साधारण से दिखने वाले युवक को पता नहीं कैसे इस संस्था में प्रविष्टि मिल गई? शायद होशियार होगा, एन्ट्रैंस में अच्छा किया हो!! पर यह कोई शासकीय कॉलेज तो था नहीं, यहाँ का खर्च अफोर्ड कर पाएगा वह? स्वयं ही को प्रश्न कर डाले उसने। छोड़ यार...I need to just concentrate on my own things!!! सारे प्रश्नों को मन से झटक डाला उसने।

थोड़े ही दिनों में उस युवक की कुशाग्रता से सभी परिचित हो गए। पहले समान अब कोई उसके पहनावे और शरीर पर फब्तियाँ तो नहीं करता था पर ज्यादा मेलजोल भी नहीं रख पाता था। उसका अति सामान्य व्यक्तित्व बडी बाधा लगती थी सबको।

मृणालिनी के लिए यह बातें बेमानी थीं। उसे केवल और केवल अपनी पढाई से मतलब होता। पर पिछले कुछ दिनों से वह विचलित रहने लगी थी। कुछ शोहदे किस्म के लडके, कॉलेज से आते-जाते, उसका पीछा करते अपनी बाइक से। कभी-कभार फ़िकरे भी कस देते। बेचारी की जान मुट्ठी में रहती। वैसे वह दब्बू न थी पर हाल-फिलहाल की घटनाओं ने उसके मन में डर बिठा दिया था। कई बारी उसने अपने माँ-पिता से शिकायत भी करी पर वे हमेशा उसे ही समझाते;

"देखो बेटी, तुम अपनी सहेलियों संग ग्रुप में आया-जाया करो। कोई ऊंच-नींच हो गई तो सारे परिवार का मुंह काला हो जाएगा।"

कोफ्त होती उसे सुनकर। आखिर उसने अपने छोटे भाई से अपनी दिक्कत बताई। छोटा, हीरो समान व्यक्तित्व वाला, खिलंदडा युवक था। कॉलेज की फुटबॉल टीम का कैप्टन, अत्यंत उद्दंड व शक्तिशाली। कहता;

"चप्पल से धुन दो सालों को, डरो मत। तुम जितना डरोगी, उतनी शह मिलेगी उन्हें।"

फिर कुछ दिन वह अपने मित्रों के साथ बहिन को कॉलेज छोड़ने व लेने भी गया। इन दिनों कोई अवांछित बात न हुई। सब कुछ सामान्य हो गया लगा उसे। उसका साहस बंधने लगा। अब वह फिर सामान्य तरीके से आने-जाने लगी।

आज वह चिंतामग्न थी। सुबह कॉलेज आते समय फिर वही बात हुई। आज तो हद हो गई। एक ने उसकी pleasure के आगे अपनी बाइक अड़ा दी थी। मुश्किल से पीछा छुड़ा पाई थी वह। जो हो गया उससे अधिक चिंता वापिस घर लौटने की थी। कमबख्त ज्योतिका भी तो नहीं आई थी आज। पूरे दिन उसे यही चिंता हो रही थी। क्लास में भी अनमनी सी ही बैठ पाई वह। बीच से उठ जाना भी उचित नहीं लग रहा था। खैर, लौटना तो है ही...सोच कर साहस जुटाने लगी वह।

वही हुआ जिसका डर लग रहा था उसे। वे चारों कॉलेज से ही पीछे लग गए। सस्ते फ़िल्मी गाने गा रहे थे चारों। बेचारी मृणालिनी तेजी से अपनी मोपेड भगाए जा रही थी पर उनकी फोर स्ट्रोक बाईक्स की गति को हरा नहीं पा रही थी। तभी सामने वह दिख गया, उसकी कॉलेज का कुरूप सहपाठी। उसने अपनी मोपेड उसके समीप खडी कर दी व हाथ पकड लिया उसका। वह नीरीह सा, अचरज से देख रहा था मृणालिनी को। पीछे से आ रहे बाईकर्स को देखा तो सारा माजरा समझ आ गया। तमतमाकर वह मृणालिनी के सम्मुख आ खडा हुआ।

"ऐ, चल निकल ले! हीरो नहीं है तू।", उपहास उड़ाती नज़रों से देख रहे थे वह उसे।

"अच्छा!! मुहम्मद नूरूद्दीन का नाम सुना है?", आग उगलती आंखों से उलटा सवाल कर रहा था वह, "झंझौटी वाला नूरूद्दीन.."

चारों ठिठक गए थे। मृणालिनी भी आश्चर्य से देखने लगी। झिंगुर से दिखने वाले उस लड़के का साहस सचमुच आश्चर्यचकित करनेवाला था।

"हूल दे रहा है क्या? कौन लगता है नूरूद्दीन तेरा?", उनमें से किसी ने पूछा तो पर आवाज का आत्मविश्वास कम हो चुका था।

"अबे, कौन क्या? मैं खुद नूरूद्दीन हूँ। गौर से देखो...", उसकी आवाज की गुर्राहट से मृणालिनी भी सहम गई थी।, "आगे बढ़ लो और फिर यह हिमाकत हुई तो तुम जानते हो...", वाक्य अधूरा छोड़ दिया था उसने। इस पूरे वार्तालाप के दौरान उसके हाथ अपनी जेब में थे। लगा, कुछ था उसकी जेब में। वे चारों पर्याप्त रूप से आतंकित हो चुके थे। वे न केवल चुपचाप चल दिए बल्कि जाते-जाते क्षमा भी मांगी उन्होंने मृणालिनी से। वह हैरत से देखे जा रही थी सारी घटना। अब तो वह भी भयभीत हो गई थी। कहीं गलती तो नहीं की उसने यह मदद लेकर? वह सोच रही थी।

"जाओ बहिन, अब कभी तुम्हें तंग करने का साहस नहीं करेंगे वे। जाओ अपने घर।"

उसकी आवाज से होश लौटे उसके, बहिन का संबोधन सुन कर साहस भी लौट आया। पर अपने मददगार को ऐसे ही छोड़ चल देना, उचित नहीं लग रहा था। बोली;

"ऐसे नहीं भाई! आपको मेरे घर तक आना होगा। मैं चाहती हूँ मैं और मेरा परिवार ढंग से आपका धन्यवाद कर सकें। आइए!!"

"धन्यवाद की कोई बात नहीं बहिन। मैंने केवल अपना कर्तव्य भर निभाया है।"

मृणालिनी ने एक न सुनी और उसे घर ले आई। सारे सन्न रह गए पूरी बात जानकर। ह्रदय से धन्यवाद किया सबने उसका। चिंता इतनी हावी हो गई थी उनपर कि ना किसीने नाम पूछा उसका, ना ही मृणालिनी ने बताया।

इस घटना के पश्चात कभी कोई परेशानी पेश नहीं आई मृणालिनी को। वह पूर्णतः निर्द्वंद्व हो चुकी थी अब। हाँ यह अवश्य हुआ कि इस घटना की जानकारी मिलते ही सबमें प्रिय हो गया था वह। अब किसी को उसकी कुरूपता से परेशानी नहीं होती थी।

और फिर आया कॉलेज का वार्षिक स्नेह-सम्मेलन!! प्रतिष्ठित वाद-विवाद स्पर्धा का इस बार का विषय था,

"दिन पर दिन बढ रही 'छेड़छाड़' के मामलों का दोषी कौन? लडके या लड़कियाँ!!"

मृणालिनी ने बडी मिन्नतें कर उसे राजी किया, भाग लेने के लिए। मृणालिनी की दृष्टि में वह सबसे बडा अधिकारी था इस विषय पर बोलने के लिए। शायद उसके व्यक्तित्व का कोई अंजान पक्ष जानने को उत्सुक थी वह। और फिर जो हुआ वह सबके लिए कल्पनातीत था।

वाद-विवाद में वक्ताओं ने एक-दूजे पर आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार कर दी। सबसे अंत में नूर को बोलना था। हाँ, सारा कॉलेज अब 'नूर' के नाम से जानने लगा था। वह डायस पर आया और उसने बोलना शुरू किया।

"मित्रों और बहनों!!! आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि मैंने 'भाईयों और बहनों' या केवल 'मित्रों' से शुरू करने की बजाय यह संबोधन किया। वास्तव में मैं इस स्पर्धा में भाग ही नहीं लेना चाहता था पर एक बहिन की जिद पर बोल रहा हूँ। स्पर्धा में भाग न लेने का एक कारण यह भी है कि यह जो विषय दिया गया है, उससे पूर्णतः सहमत नहीं मैं। मेरी दृष्टि में लडकों-लडकियों से अधिक यह जिम्मेदारी समाज की बनती है और इस समाज की इकाई है, परिवार। मूलतः मैं परिवार व हमारे सामाजिक परिवेश को छेड़छाड़ की दुर्घटनाओं का सबसे बडा जिम्मेदार मानता हूँ। हमारे घरों में लडकों-लडकियों के बीच फर्क किया जाता है और समाज भी यही करता है क्योंकि परिवार ऐसा करते हैं। यह फर्क जन्म से शुरू होकर, शादी-ब्याह से होता हुआ मृत्यु पर्यंत अबाध चलता है। मैं आज अपनी कहानी सुनाता हूँ, शायद मेरा कहना स्पष्ट हो जाय।

मैं व्यवसाय से खटिक मुस्लिम परिवार में जन्मा। व्यवसाय के चलते हो रही सामाजिक उपेक्षा ने विद्रोही तो कुसंगत ने गुंडा बना दिया मुझे। हमेशा रामपुरी और देसी कट्टा होता जेब में। झंझौटी के मुहम्मद नूरूद्दीन का नाम आपमें से कईयों ने सुना होगा। मैं वही हूँ, मुहम्मद नूरूद्दीन!! आश्चर्य ना करें। कॉलेज के प्रिंसिपल सर जानते हैं सब। आत्महत्या की कगार से लौटा लाने वाले पंडित रामाधीन सर की कृपा से मैं वह हूँ जिसे आप सम्मान देते हैं। विषयांतर हो रहा है। विषय पर आता हूँ।

उन दिनों, नवीं में तीन बार अनुत्तीर्ण होने के दौरान, मैं बडा कुख्यात गुंडा मशहूर हो गया था। मेरे ग़रीब माँ-बाप लाख समझाते, मेरे कानों पर जूँ नहीं रेंगती। वे कहा करते;

'बेटा, एक तो हम ग़रीब, मुस्लिम उसपर खटिक का धंधा। समाज में कोई नहीं मानता हमें। यदि विनम्रता से रहेंगे तो लोग भी पूछेंगे। तुम्हारी उद्दंडता बडी मुसीबत में डाल सकती है पूरे परिवार को। अब भी समय है, संभल जाओ।'

इससे अधिक कुछ न कह पाते बेचारे। इकलौता जो था मैं! जब कभी उनके उपदेशों का डोज ज्यादा हो जाता, हफ्ते-दो हफ्ते मैं घर ही नहीं जाता। बेचारे डरते, कहीं सदा के लिए न छोड़ कर चल दूँ मैं उन्हें। मैं उनकी मासूमियत का नाजायज फायदा उठाया करता था। मुझे याद है जिस वर्ष मैं तीसरी बार फेल हुआ, उन्हीं दिनों का बात थी यह। किसी गलतफहमी के चलते, एक हिंदू लड़की से छेड़छाड़ का आरोप लगा था मुझ पर। उसका परिवार गांव का सबसे धनी और संभ्रांत परिवार था। मुझमें लाख बुराईयाँ थी पर चरित्र शुद्ध था मेरा। मैंने अपनी बात रखनी चाही पर कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। मेरी बुराइयों ने मेरी एक अच्छाई को मिटा कर रख दिया था। बात हिंदू-मुस्लिम की भी थी। मुझे और किसी की इतनी चिंता न थी पर माँ का बडा डर लग रहा था। वही हुआ, पहले तो वह बहुत रोई। धीरे-धीरे गुस्सा बढा तो पास पडी चूल्हे की लकड़ी से बेतहाशा पीटने लगी मुझे। सारा शरीर लहूलुहान हो गया था मेरा।

'अभागे, निकल जा मेरे घर से! आज से मैं तेरे लिए मर गई समझ लेना और तू तो मेरे लिए उसी दिन मर गया था जिस दिन गांव की बेटी पर नज़र डाली थी तूने। इस उमर में यह कालिख लगाई है तूने.....इससे तो मर जाना बेहतर है। हमें जीने लायक नहीं छोड़ा तूने...'

मैं पहले तो उसे समझाने का प्रयास करता रहा पर उसके प्रहारों से चोटिल हो भागने के सिवा कुछ और न कर पाया मैं। बस भाग लिया। उस रात लोगों ने बडी गालियां दी मेरे माँ-बाप को। मुझे न पाकर, धमकी दे, वापस चले गए थे सब। दूसरे दिन मामला साफ हुआ। जो गलतफहमी मुझ पर हुई थी सबको, दूर हुई। वह कोई और था। पर यह थोड़ी सी देरी, बडा अंधेर कर गई। व्यथित माँ-बाप ने रात ही में ज़हर खा लिया था। मेरे पहुंचने तक दोनों ही पहुँच गए थे। मैं अब घर से निकलता न था। रात-दिन पडा रोया करता। मेरे आंसू पोंछने वाला कोई न था। धीरे-धीरे दुख के स्थान पर प्रतिशोध की भावना बढने लगी। ऊपरवाले को शायद कुछ और मंजूर था। फिर एक दिन पंडित रामाधीन सर आए मुझसे मिलने। उन्होंने ताड़ लिया था कि मैं कुछ अनुचित करनेवाला हूँ। बातों-बातों में मुझसे उगलवा लिया सब कुछ। उनका कहा मैं आज भी भूला नहीं हूँ। उनकी बातों ने जिंदगी बदल कर रख दी मेरी। उन्होंने कहा था;

'नूर, जरा विचार करो। जिस बात ने तुम्हारे माता-पिता को छीन लिया तुमसे, अब भी वही करोगे? अपनी ईज्जत के बदले जान दे दी उन दोनों ने, क्या किसी की जान ले लेने जितनी ही कीमत लगाई है तुमने उनके आत्मसमर्पण की? तुम्हें तो चाहिए कि उनकी ईज्जत चार गुना कर, लौटा लाओ तुम तभी उनकी रूह को चैन आएगा, वरना हिसाब वाले दिन फिर मरना पडेगा उन्हें। क्या चाहते हो, ठहरा लो!'

दो दिन उनकी बातें जेहन में घूमती रही। मैं रास्ता चुन चुका था। पंडित जी की ही मदद से मैंने नवीं से लेकर बारहवीं तक शिक्षा पाई। हर परीक्षा अव्वल नंबरों से पास की। प्रिंसिपल सर तसदीक करेंगे इस बात की। वे पंडित जी के भाई हैं और मेरे वर्तमान अभिभावक भी।

लड़कों से प्रश्न है मेरा......आपमें से कितनों के माता-पिता अपने बेटे के चरित्र-स्खलन पर उसे Tप्रताड़ित करते हैं। छोटी-बडी हर बात में आप अपने व बहिन के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं को visualize करें और जवाब दें। सौ प्रतिशत पालकों के मुख पर कालिख की वजह, बेटियां ही होती रही हैं। कभी किसी बेटे पर यह आरोप नहीं लगता, ना उन्हें कहा जाता है। क्यों? मैं सोच भी नहीं सकता कि किसी लड़की को छेड़ दूँ। डंडा लिए मेरी माँ और माता-पिता, दोनों के शव दीख पड़ते हैं। कांप जाता हूँ मैं। यदि परिवार यह करे तो समाज भी यही करेगा! फिर किसी लड़के का साहस नहीं होगा ऐसा कुछ करने का! बस यही कहना था..."

तालियों के शोर के बीच, मृणालिनी अपने माता-पिता को, छोटे की ऐसी ही हरकत की शिकायत कर रहे लड़की के माता-पिता से, छोटे के समर्थन में झगड़ते हुए देख रही थी...

- सत्येन भंडारी

(चित्र साभार : गूगल से...)

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

"मम्मा की मिठ्ठू"

डेढ़ महीना ही हुआ है पर दोनों की केमिस्ट्री देख लगता है, अपनी मोनोपली अंतिम दिनों में है। मुझ बिन भी रह लीं श्रीमती जी परिवार की इस नई व इकलौती बिटिया संग, और अब exam preparation हेतु फिर जाने की तैयारियों में भी लग गई हैं। चलो, यही सही पर कुछ मेरी भी तो सुनोगी, या नहीं? सौ उपहार मम्मी के लिए तो एक पर तो अधिकार बनता है कि नहीं मेरा? नहीं तो, मैं तो यही कहूँगा कि....

मम्मा की मिठ्ठू हो तुम!
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

पुत्रि-विहीन जीवन में मेरे,
आस बँधी, आने से तेरे
किल्लोलें करता मन मेरा,
एक ओस की बूंद को तरसे,
प्यासे चातक का मन जैसे,
देख ऋतु वर्षा की हरषे!

जैसे मेघों का भारी जमघट,
बिन बरसे हो जाता है गुम
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

कहीं मेरा कुछ भी ना कहना
और सदा चुप-चुप सा रहना
है आशंकित करता तुमको
बतला दो यदि सच है, मुझको!
कैसे कर दूँ तुमको आश्वस्त?
शंकाएँ हों सारी निरस्त!

अक्षमता मेरी है यह भी,
नहीं खुल पाया मैं, मम्मा सम
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

सारे संदेश हैं मम्मा को,
सारे उपहार भी मम्मा को
हँसी-चुटकुले, मम्मा संग
रहती बिखेरती सारे रंग!
जो तुमको है घर ले आया,
नहीं उसने शायद बतलाया!

वह भी तो है अनजान किंतु,
है प्रेम भरा, मेरा यह मन
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

भार ये तुम पर है बिटिया
हो सराबोर अपनी कुटिया
ह्रदयंगत भाव जो हैं मेरे
जानों-पहचानों अब सारे
जानता कदाचित है वह भी
पर नहीं बताया, कहीं-कभी!

शायद पुरूषोचित अहंकार
हो फैलाता यह सारे भ्रम
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

अब बतलाता हूँ क्या करना है
बस 'म' को, 'प' से बदलना है
नहीं कहता, करो तुम सदा यही,
बस किया करो पर कभी-कभी
लालसा मेरे मन है यह भी,
उपहार कोई लाए बेटी!

उपहार, मेरा परिचय उसको
दे सकती हो अब, केवल तुम!
बन जाओ अब मिठ्ठू मेरी,
चाहे हों अम्मा हीं पहले...
मुझको ही पहले मानों तुम!!

.....और तुम्हारा समय शुरू होता है..., अब!!!!

- सत्येन भंडारी

शनिवार, 20 अगस्त 2016

"ऐसा भी रक्षाबंधन!!"

"भारतीय भाई-बहनों का अद्भुत उत्सव है, राखी!! ढूँढे से कोई अन्य मिसाल नहीं मिलती सारे विश्व में इसकी। भाई-बहन के अद्भुत प्रेम का प्रतीक! फेसबुक भरा पडा है, राखी बांधती बहनों के चित्रों, भाईयों के प्रसन्न चेहरों व ढेरों शुभकामना संदेशों से!!" दूरदर्शन पर कोई एंकर रक्षाबंधन का महत्व बता रही थी।

"पर क्या सचमुच ऐसा ही है? या मैं एकमात्र भाई हूँ, जिसके भाग्य में यह दुर्भाग्य लिखा है?", जैसे स्वयं से पूछ रहा था वह, "बहन या भाई के विवाह तक ही इस उत्सव का मूल भाव जीवित रहता है, उसके बाद सब भगवान भरोसे!", ...सागर की लहरों की भांति विचारों का अंधड उठा हुआ था मन में। इस अंधड में कब, बह कर बचपन में पहुँच गया था वह, पता ही न चला उसे।

इकलौती बहन सबकी प्रिय थी। सबसे अधिक पिता की। शायद इसीलिए थोड़ी जिद्दी भी थी। उसकी हर बात, सर-आंखों ली जाती। लाड़-प्यार ने मानिनी बना दिया उसे। इन सबके बावजूद उसे भी प्रिय थी वह। समय के साथ दोनों बडे हुए और एक दिन, शहर के ही एक संपन्न परिवार में, उसका विवाह हो गया। उसके विवाह के साथ ही, जैसे दुनिया ही बदल गई उन भाई-बहन की! बचपन की मासूमियत खत्म हो गई लगती थी उसे।

हर बार अपने आत्म-सम्मान के चीथड़े समेटे, व्यथित ह्रदय के साथ घर लौटता वह इस दिन। पिता के अवसान के बाद, माँ के कहे अनुसार, बडी जिम्मेदारी से सारे तीज-त्यौहार पर अपने कर्तव्य निभाता आया था वह। बहन का संपन्न किंतु रूढीवादी परिवार कभी खुश न हुआ। वे हर बात को अपनी हैसियत से तौलते और फिर ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया जाता कि अगली बार न आने की ठान लेता था वह। परिवार की विभक्ति के साथ ही उसके ह्रदय में आशा पल्लवित हुई थी। अभी तक परिवार के अन्य सदस्यों के बर्ताव की आड में वह समझ नहीं पाया था पर अब बहन-दामाद का रूप देख, उसकी सभी कामनाओं पर पानी फिर गया। आयु और योग्यता में कहीं न ठहरने वाले दामाद के अत्यंत कटु बोल, मानिनी बहन की गैरवाजबी अपेक्षाएँ, कभी कभी मन में क्रोध उत्पन्न करते, जिसकी अभिव्यक्ति से भूचाल आ जाने का डर लगता। अगली बार न आने का इरादा करने के बाद भी अब तक कभी व्यवहार में नहीं लाया था उसने।

भारतीय लडकियों पर दोहरी जिम्मेदारी होती है। उन्हें न केवल अपने ससुराल पक्ष का मान ही संभालना होता है अपितु पीहर के सम्मान का दायित्व भी उन्हीं पर होता है। कई बार घर में पत्नी या माता को समझाने के लिए इसी बात का सहारा लिया था उसने। रक्षाबंधन का भावनात्मक पक्ष हमेशा एक आस जगाए रखता कि कभी तो सब ठीक होगा! पर बीते कुछ वर्षों में बहन की कटुता भरी नाराजगी ने, दिल तोड़ दिया था सारे परिवार का।

रक्षाबंधन, भाई द्वारा बहन को अभय वचन देने का दिन है तो वहीं बहन के अपने भाई के सुख, मान और चिरंजीवी होने की कामना करने का दिन भी है। और फिर, ऐसे ही एक दिन, अब तक जबरन रोक कर रखा गया भूचाल आया, अपनी पूरी शक्ति के साथ, और सब कुछ तहस-नहस कर चला गया। उसने अपने दोनों हाथ जोड़ कर माफी मांगी, बहन-दामाद व बच्चों को आशीर्वाद दिया और अपनी तुच्छ भेंट और दो कौड़ी के आत्म-सम्मान को समेट निकल पडा बहन के घर से।

वह निकल तो आया वहाँ से, पर मन उसका, अब भी बचपन की मासूमियत वाले रक्षाबंधन को अनुभव करने की चाह रखता है। विधना कदाचित किसी बात पर रूष्ठ हैं उससे। घर में बेटे तो हैं, बेटी नहीं है! अपने परिवार की अन्य बेटियों में, मित्रों-पडोसियों की पुत्रियों में, 'बेटी' देखने का प्रयास करता रहता है। यहाँ तक कि फेसबुक की अपनी महिला-मित्रों में भी, बचपन वाली अपनी बहन को ढूँढने लगा है अब तो....

- सत्येन भंडारी