बुधवार, 21 सितंबर 2016

"उपहार"


जैसे ही बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां शुरू होतीं, मेरा मन ललक उठता मायके जाने को। एक भारतीय स्त्री ही अनुमान लगा सकती है इस इच्छा की प्रबलता का। बस के शहर छोड़ते ही ऐसे महसूस होता, जैसे किसी बंदी को जेल से छूटने पर होता होगा। फिर जैसे ही यह मेरे पितृनगर में प्रवेश करती, मेरे भीतर की अल्हड युवती एक अंगड़ाई लेकर जाग रही होती। मेरी छुट्टियां 15 से 20 दिन की होतीं।

इन छुट्टियों का सबसे बडा आकर्षण था मेरी ननिहाल। मेरे गृहनगर से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर, लगभग ढाई-तीन हजार की बस्ती वाला, एक छोटी सी पहाड़ी की तलहटी में बसा सुरम्य खेडा। मेरे नाना किसान थे। इनका घर खेत से लग कर ही था। मेरे बचपन का स्वर्ग था यह रम्य स्थान। मेरे नाना के चार पुत्रों व तीन पुत्रियों के बच्चों से पूरा गांव चहकता सा लगता। पिछले बीस वर्षों में काफी कुछ बदला, पर मेरे ननिहाल का आकर्षण अबाध रहा। विवाह के पहले पांच वर्षों तक तो पता ही न चला कि पिता के अवसान के साथ ही खेती बंट गई थी मामाओं में। नई व्यवस्था ने काफी फर्क कर दिया था, पर जब सब एकत्र आते छुट्टियों में तो लगता ही नहीं कि कुछ बदला है। वो तो जब मामा लोगों के घर भी अलग हो गए, तब पता चला। लगा कुछ टूट सा रहा है। सभी मामा हम बच्चों को डांटते हुए समझाते कि यह तुम लोगों की चिंता नहीं। तुम लोगों का काम है कि आओ और सब कुछ भूल कर, मजा करो। आज भी मजा करते हैं हम।

नीरू मामी मेरी बडी करीब थी। मुझसे केवल दो वर्ष बडी। मामा पांच वर्ष बडे थे मुझसे और अपने भाईयों में सबसे छोटे। बंटवारे के पश्चात सबसे निर्धन यही थे। सखी समान मामी से खूब बनती मेरी। मेरी हर फरमाईश इन्हींसे होती। पिछले बीस वर्षों में यह भी एक रिश्ता था जो अबाध है अबतक। संजीव (मेरे पति) और चंदू मामा में भी खूब छनती।

इस बार जब मैं नीरू मामी के यहां आई तो स्थितियां गंभीर दिखीं। पिछले दो वर्षों की कमतर वर्षा ने हालत ख़राब कर रखी थीं। मैं हमेशा की भांति चार दिन रही नीरू मामी के साथ। हमेशा की ही भांति संजीव सीधे यहीं पहुंचे, मुझे लेने। आज हम दोनों निकल रहे हैं। मामी ने शानदार भोजन बनाया है। संजीव के चटोरेपन को ध्यान में रख सब आयोजन किया गया है। मामा और संजीव ने साथ में भोजन किया और तृप्त हो पान खाने चल दिये हैं। मुझे नीरू मामी से भावभरी विदा लेने का अवसर मिल गया है। पर वे हैं कहाँ ? उनके कमरे में झांक कर देखा, वे अलमारी से कुछ निकाल रही थीं।

"तुम्हारे मामा के साथ पिछले बाज़ार में तुम्हारे लिए उपहार लिया है। इस बार मना मत करना।"

"मामी, तुम जानती हो न संजीव को पसंद नहीं यह...फिर क्यों धर्मसंकट में डाल रही हो ?"

संजीव कभी कुछ न लेते किसी से। हाँ, नानाजी को कभी इंकार नहीं किया था उन्होंने। वे जो हाथ में रखते, चुपचाप ले लिया करते। बाकी किसी से नहीं। कभी किसी अवसर पर, काफी जिद की जाती तो शगुन मानकर एक रूपए का सिक्का उठा लेते।

"बेटी, हर बार तुम आती हो...कितना कुछ दे जाती हो.... जिसका मोल नहीं लगाया जा सकता उस स्नेह की बारिश में पूरे साल भीगे रहते हैं हम दोनों, पर तुम कभी कुछ नहीं लेतीं ! इस बार तुम्हारे मामा का मन है, उसे रख लो। कोई मूल्यवान उपहार तो नहीं है पर स्नेह भरा है इसमें हम दोनों का। तुम्हारे मामा, संजीव को इसीलिए हटा ले गए हैं यहाँ से। ...और कदाचित अपने अश्रू छुपाने हेतु खुद भी हट गए।" सखी, माँ सी लग रही थी...

नीरू मामी के नयन भर आए थे और मेरे भी। मेरे पास इंकार की वजह नहीं थी कोई। मैंने देखा, वह एक चटख लाल रंग की साधारण सी सूती साडी थी। संजीव को ऐसे रंग व टेक्श्चर बडे पसंद आते थे। चतुर नीरू मामी ने ध्यान रखा था इस बात का। चंदू मामा और संजीव पान खाकर आ चुके थे।

"चलो, निपट गया क्या सब ? नीरू, बस का समय हो गया है...!!!"

नीरू मामी को प्रश्न भरी मुद्रा से निहारते हुए मामा भीतर आ रहे थे। नीरू मामी की हाँ में हिलती गर्दन को देखते ही उनकी आंखों में भी तिनका पड़ गया था। मेरी आंखों में आंसू थे और हाथों में ? हाथों में था, जीवन का सबसे मूल्यवान उपहार !!

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