सोमवार, 5 सितंबर 2016

"आखिर कब तक???"

"आखिर कब तक???"

"ए...देख उधर, आ गया नमूना! कैसे भला एडमिशन मिल गया उसे ऐसी विख्यात कॉलेज में? छी बाबा!"

"हाँ यार, उसके कपड़ों को देख....पांव की चप्पल देख। कोई पूछ ले या किसी को बताना पड़े कि यह मेरे कॉलेज और उसमें भी मेरी ही क्लास में पढ़ता है तो भद्द पिट जाए...so disgusting, I tell you.."

सहेलियों को कहते सुना तो मृणालिनी उत्सुकता से देखने लगी उसे। नए वर्ष का पहला दिन था कॉलेज में। आबनूसी वर्ण व अत्यंत ही साधारण शरीरयष्ठि वाला लड़का था वह। चेहरे पर चेचक के हल्के दाग उसे और कुरूप बना रहे थे। सचमुच इतने साधारण से दिखने वाले युवक को पता नहीं कैसे इस संस्था में प्रविष्टि मिल गई? शायद होशियार होगा, एन्ट्रैंस में अच्छा किया हो!! पर यह कोई शासकीय कॉलेज तो था नहीं, यहाँ का खर्च अफोर्ड कर पाएगा वह? स्वयं ही को प्रश्न कर डाले उसने। छोड़ यार...I need to just concentrate on my own things!!! सारे प्रश्नों को मन से झटक डाला उसने।

थोड़े ही दिनों में उस युवक की कुशाग्रता से सभी परिचित हो गए। पहले समान अब कोई उसके पहनावे और शरीर पर फब्तियाँ तो नहीं करता था पर ज्यादा मेलजोल भी नहीं रख पाता था। उसका अति सामान्य व्यक्तित्व बडी बाधा लगती थी सबको।

मृणालिनी के लिए यह बातें बेमानी थीं। उसे केवल और केवल अपनी पढाई से मतलब होता। पर पिछले कुछ दिनों से वह विचलित रहने लगी थी। कुछ शोहदे किस्म के लडके, कॉलेज से आते-जाते, उसका पीछा करते अपनी बाइक से। कभी-कभार फ़िकरे भी कस देते। बेचारी की जान मुट्ठी में रहती। वैसे वह दब्बू न थी पर हाल-फिलहाल की घटनाओं ने उसके मन में डर बिठा दिया था। कई बारी उसने अपने माँ-पिता से शिकायत भी करी पर वे हमेशा उसे ही समझाते;

"देखो बेटी, तुम अपनी सहेलियों संग ग्रुप में आया-जाया करो। कोई ऊंच-नींच हो गई तो सारे परिवार का मुंह काला हो जाएगा।"

कोफ्त होती उसे सुनकर। आखिर उसने अपने छोटे भाई से अपनी दिक्कत बताई। छोटा, हीरो समान व्यक्तित्व वाला, खिलंदडा युवक था। कॉलेज की फुटबॉल टीम का कैप्टन, अत्यंत उद्दंड व शक्तिशाली। कहता;

"चप्पल से धुन दो सालों को, डरो मत। तुम जितना डरोगी, उतनी शह मिलेगी उन्हें।"

फिर कुछ दिन वह अपने मित्रों के साथ बहिन को कॉलेज छोड़ने व लेने भी गया। इन दिनों कोई अवांछित बात न हुई। सब कुछ सामान्य हो गया लगा उसे। उसका साहस बंधने लगा। अब वह फिर सामान्य तरीके से आने-जाने लगी।

आज वह चिंतामग्न थी। सुबह कॉलेज आते समय फिर वही बात हुई। आज तो हद हो गई। एक ने उसकी pleasure के आगे अपनी बाइक अड़ा दी थी। मुश्किल से पीछा छुड़ा पाई थी वह। जो हो गया उससे अधिक चिंता वापिस घर लौटने की थी। कमबख्त ज्योतिका भी तो नहीं आई थी आज। पूरे दिन उसे यही चिंता हो रही थी। क्लास में भी अनमनी सी ही बैठ पाई वह। बीच से उठ जाना भी उचित नहीं लग रहा था। खैर, लौटना तो है ही...सोच कर साहस जुटाने लगी वह।

वही हुआ जिसका डर लग रहा था उसे। वे चारों कॉलेज से ही पीछे लग गए। सस्ते फ़िल्मी गाने गा रहे थे चारों। बेचारी मृणालिनी तेजी से अपनी मोपेड भगाए जा रही थी पर उनकी फोर स्ट्रोक बाईक्स की गति को हरा नहीं पा रही थी। तभी सामने वह दिख गया, उसकी कॉलेज का कुरूप सहपाठी। उसने अपनी मोपेड उसके समीप खडी कर दी व हाथ पकड लिया उसका। वह नीरीह सा, अचरज से देख रहा था मृणालिनी को। पीछे से आ रहे बाईकर्स को देखा तो सारा माजरा समझ आ गया। तमतमाकर वह मृणालिनी के सम्मुख आ खडा हुआ।

"ऐ, चल निकल ले! हीरो नहीं है तू।", उपहास उड़ाती नज़रों से देख रहे थे वह उसे।

"अच्छा!! मुहम्मद नूरूद्दीन का नाम सुना है?", आग उगलती आंखों से उलटा सवाल कर रहा था वह, "झंझौटी वाला नूरूद्दीन.."

चारों ठिठक गए थे। मृणालिनी भी आश्चर्य से देखने लगी। झिंगुर से दिखने वाले उस लड़के का साहस सचमुच आश्चर्यचकित करनेवाला था।

"हूल दे रहा है क्या? कौन लगता है नूरूद्दीन तेरा?", उनमें से किसी ने पूछा तो पर आवाज का आत्मविश्वास कम हो चुका था।

"अबे, कौन क्या? मैं खुद नूरूद्दीन हूँ। गौर से देखो...", उसकी आवाज की गुर्राहट से मृणालिनी भी सहम गई थी।, "आगे बढ़ लो और फिर यह हिमाकत हुई तो तुम जानते हो...", वाक्य अधूरा छोड़ दिया था उसने। इस पूरे वार्तालाप के दौरान उसके हाथ अपनी जेब में थे। लगा, कुछ था उसकी जेब में। वे चारों पर्याप्त रूप से आतंकित हो चुके थे। वे न केवल चुपचाप चल दिए बल्कि जाते-जाते क्षमा भी मांगी उन्होंने मृणालिनी से। वह हैरत से देखे जा रही थी सारी घटना। अब तो वह भी भयभीत हो गई थी। कहीं गलती तो नहीं की उसने यह मदद लेकर? वह सोच रही थी।

"जाओ बहिन, अब कभी तुम्हें तंग करने का साहस नहीं करेंगे वे। जाओ अपने घर।"

उसकी आवाज से होश लौटे उसके, बहिन का संबोधन सुन कर साहस भी लौट आया। पर अपने मददगार को ऐसे ही छोड़ चल देना, उचित नहीं लग रहा था। बोली;

"ऐसे नहीं भाई! आपको मेरे घर तक आना होगा। मैं चाहती हूँ मैं और मेरा परिवार ढंग से आपका धन्यवाद कर सकें। आइए!!"

"धन्यवाद की कोई बात नहीं बहिन। मैंने केवल अपना कर्तव्य भर निभाया है।"

मृणालिनी ने एक न सुनी और उसे घर ले आई। सारे सन्न रह गए पूरी बात जानकर। ह्रदय से धन्यवाद किया सबने उसका। चिंता इतनी हावी हो गई थी उनपर कि ना किसीने नाम पूछा उसका, ना ही मृणालिनी ने बताया।

इस घटना के पश्चात कभी कोई परेशानी पेश नहीं आई मृणालिनी को। वह पूर्णतः निर्द्वंद्व हो चुकी थी अब। हाँ यह अवश्य हुआ कि इस घटना की जानकारी मिलते ही सबमें प्रिय हो गया था वह। अब किसी को उसकी कुरूपता से परेशानी नहीं होती थी।

और फिर आया कॉलेज का वार्षिक स्नेह-सम्मेलन!! प्रतिष्ठित वाद-विवाद स्पर्धा का इस बार का विषय था,

"दिन पर दिन बढ रही 'छेड़छाड़' के मामलों का दोषी कौन? लडके या लड़कियाँ!!"

मृणालिनी ने बडी मिन्नतें कर उसे राजी किया, भाग लेने के लिए। मृणालिनी की दृष्टि में वह सबसे बडा अधिकारी था इस विषय पर बोलने के लिए। शायद उसके व्यक्तित्व का कोई अंजान पक्ष जानने को उत्सुक थी वह। और फिर जो हुआ वह सबके लिए कल्पनातीत था।

वाद-विवाद में वक्ताओं ने एक-दूजे पर आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार कर दी। सबसे अंत में नूर को बोलना था। हाँ, सारा कॉलेज अब 'नूर' के नाम से जानने लगा था। वह डायस पर आया और उसने बोलना शुरू किया।

"मित्रों और बहनों!!! आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि मैंने 'भाईयों और बहनों' या केवल 'मित्रों' से शुरू करने की बजाय यह संबोधन किया। वास्तव में मैं इस स्पर्धा में भाग ही नहीं लेना चाहता था पर एक बहिन की जिद पर बोल रहा हूँ। स्पर्धा में भाग न लेने का एक कारण यह भी है कि यह जो विषय दिया गया है, उससे पूर्णतः सहमत नहीं मैं। मेरी दृष्टि में लडकों-लडकियों से अधिक यह जिम्मेदारी समाज की बनती है और इस समाज की इकाई है, परिवार। मूलतः मैं परिवार व हमारे सामाजिक परिवेश को छेड़छाड़ की दुर्घटनाओं का सबसे बडा जिम्मेदार मानता हूँ। हमारे घरों में लडकों-लडकियों के बीच फर्क किया जाता है और समाज भी यही करता है क्योंकि परिवार ऐसा करते हैं। यह फर्क जन्म से शुरू होकर, शादी-ब्याह से होता हुआ मृत्यु पर्यंत अबाध चलता है। मैं आज अपनी कहानी सुनाता हूँ, शायद मेरा कहना स्पष्ट हो जाय।

मैं व्यवसाय से खटिक मुस्लिम परिवार में जन्मा। व्यवसाय के चलते हो रही सामाजिक उपेक्षा ने विद्रोही तो कुसंगत ने गुंडा बना दिया मुझे। हमेशा रामपुरी और देसी कट्टा होता जेब में। झंझौटी के मुहम्मद नूरूद्दीन का नाम आपमें से कईयों ने सुना होगा। मैं वही हूँ, मुहम्मद नूरूद्दीन!! आश्चर्य ना करें। कॉलेज के प्रिंसिपल सर जानते हैं सब। आत्महत्या की कगार से लौटा लाने वाले पंडित रामाधीन सर की कृपा से मैं वह हूँ जिसे आप सम्मान देते हैं। विषयांतर हो रहा है। विषय पर आता हूँ।

उन दिनों, नवीं में तीन बार अनुत्तीर्ण होने के दौरान, मैं बडा कुख्यात गुंडा मशहूर हो गया था। मेरे ग़रीब माँ-बाप लाख समझाते, मेरे कानों पर जूँ नहीं रेंगती। वे कहा करते;

'बेटा, एक तो हम ग़रीब, मुस्लिम उसपर खटिक का धंधा। समाज में कोई नहीं मानता हमें। यदि विनम्रता से रहेंगे तो लोग भी पूछेंगे। तुम्हारी उद्दंडता बडी मुसीबत में डाल सकती है पूरे परिवार को। अब भी समय है, संभल जाओ।'

इससे अधिक कुछ न कह पाते बेचारे। इकलौता जो था मैं! जब कभी उनके उपदेशों का डोज ज्यादा हो जाता, हफ्ते-दो हफ्ते मैं घर ही नहीं जाता। बेचारे डरते, कहीं सदा के लिए न छोड़ कर चल दूँ मैं उन्हें। मैं उनकी मासूमियत का नाजायज फायदा उठाया करता था। मुझे याद है जिस वर्ष मैं तीसरी बार फेल हुआ, उन्हीं दिनों का बात थी यह। किसी गलतफहमी के चलते, एक हिंदू लड़की से छेड़छाड़ का आरोप लगा था मुझ पर। उसका परिवार गांव का सबसे धनी और संभ्रांत परिवार था। मुझमें लाख बुराईयाँ थी पर चरित्र शुद्ध था मेरा। मैंने अपनी बात रखनी चाही पर कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। मेरी बुराइयों ने मेरी एक अच्छाई को मिटा कर रख दिया था। बात हिंदू-मुस्लिम की भी थी। मुझे और किसी की इतनी चिंता न थी पर माँ का बडा डर लग रहा था। वही हुआ, पहले तो वह बहुत रोई। धीरे-धीरे गुस्सा बढा तो पास पडी चूल्हे की लकड़ी से बेतहाशा पीटने लगी मुझे। सारा शरीर लहूलुहान हो गया था मेरा।

'अभागे, निकल जा मेरे घर से! आज से मैं तेरे लिए मर गई समझ लेना और तू तो मेरे लिए उसी दिन मर गया था जिस दिन गांव की बेटी पर नज़र डाली थी तूने। इस उमर में यह कालिख लगाई है तूने.....इससे तो मर जाना बेहतर है। हमें जीने लायक नहीं छोड़ा तूने...'

मैं पहले तो उसे समझाने का प्रयास करता रहा पर उसके प्रहारों से चोटिल हो भागने के सिवा कुछ और न कर पाया मैं। बस भाग लिया। उस रात लोगों ने बडी गालियां दी मेरे माँ-बाप को। मुझे न पाकर, धमकी दे, वापस चले गए थे सब। दूसरे दिन मामला साफ हुआ। जो गलतफहमी मुझ पर हुई थी सबको, दूर हुई। वह कोई और था। पर यह थोड़ी सी देरी, बडा अंधेर कर गई। व्यथित माँ-बाप ने रात ही में ज़हर खा लिया था। मेरे पहुंचने तक दोनों ही पहुँच गए थे। मैं अब घर से निकलता न था। रात-दिन पडा रोया करता। मेरे आंसू पोंछने वाला कोई न था। धीरे-धीरे दुख के स्थान पर प्रतिशोध की भावना बढने लगी। ऊपरवाले को शायद कुछ और मंजूर था। फिर एक दिन पंडित रामाधीन सर आए मुझसे मिलने। उन्होंने ताड़ लिया था कि मैं कुछ अनुचित करनेवाला हूँ। बातों-बातों में मुझसे उगलवा लिया सब कुछ। उनका कहा मैं आज भी भूला नहीं हूँ। उनकी बातों ने जिंदगी बदल कर रख दी मेरी। उन्होंने कहा था;

'नूर, जरा विचार करो। जिस बात ने तुम्हारे माता-पिता को छीन लिया तुमसे, अब भी वही करोगे? अपनी ईज्जत के बदले जान दे दी उन दोनों ने, क्या किसी की जान ले लेने जितनी ही कीमत लगाई है तुमने उनके आत्मसमर्पण की? तुम्हें तो चाहिए कि उनकी ईज्जत चार गुना कर, लौटा लाओ तुम तभी उनकी रूह को चैन आएगा, वरना हिसाब वाले दिन फिर मरना पडेगा उन्हें। क्या चाहते हो, ठहरा लो!'

दो दिन उनकी बातें जेहन में घूमती रही। मैं रास्ता चुन चुका था। पंडित जी की ही मदद से मैंने नवीं से लेकर बारहवीं तक शिक्षा पाई। हर परीक्षा अव्वल नंबरों से पास की। प्रिंसिपल सर तसदीक करेंगे इस बात की। वे पंडित जी के भाई हैं और मेरे वर्तमान अभिभावक भी।

लड़कों से प्रश्न है मेरा......आपमें से कितनों के माता-पिता अपने बेटे के चरित्र-स्खलन पर उसे Tप्रताड़ित करते हैं। छोटी-बडी हर बात में आप अपने व बहिन के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं को visualize करें और जवाब दें। सौ प्रतिशत पालकों के मुख पर कालिख की वजह, बेटियां ही होती रही हैं। कभी किसी बेटे पर यह आरोप नहीं लगता, ना उन्हें कहा जाता है। क्यों? मैं सोच भी नहीं सकता कि किसी लड़की को छेड़ दूँ। डंडा लिए मेरी माँ और माता-पिता, दोनों के शव दीख पड़ते हैं। कांप जाता हूँ मैं। यदि परिवार यह करे तो समाज भी यही करेगा! फिर किसी लड़के का साहस नहीं होगा ऐसा कुछ करने का! बस यही कहना था..."

तालियों के शोर के बीच, मृणालिनी अपने माता-पिता को, छोटे की ऐसी ही हरकत की शिकायत कर रहे लड़की के माता-पिता से, छोटे के समर्थन में झगड़ते हुए देख रही थी...

- सत्येन भंडारी

(चित्र साभार : गूगल से...)

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