गुरुवार, 25 अगस्त 2016

"मम्मा की मिठ्ठू"

डेढ़ महीना ही हुआ है पर दोनों की केमिस्ट्री देख लगता है, अपनी मोनोपली अंतिम दिनों में है। मुझ बिन भी रह लीं श्रीमती जी परिवार की इस नई व इकलौती बिटिया संग, और अब exam preparation हेतु फिर जाने की तैयारियों में भी लग गई हैं। चलो, यही सही पर कुछ मेरी भी तो सुनोगी, या नहीं? सौ उपहार मम्मी के लिए तो एक पर तो अधिकार बनता है कि नहीं मेरा? नहीं तो, मैं तो यही कहूँगा कि....

मम्मा की मिठ्ठू हो तुम!
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

पुत्रि-विहीन जीवन में मेरे,
आस बँधी, आने से तेरे
किल्लोलें करता मन मेरा,
एक ओस की बूंद को तरसे,
प्यासे चातक का मन जैसे,
देख ऋतु वर्षा की हरषे!

जैसे मेघों का भारी जमघट,
बिन बरसे हो जाता है गुम
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

कहीं मेरा कुछ भी ना कहना
और सदा चुप-चुप सा रहना
है आशंकित करता तुमको
बतला दो यदि सच है, मुझको!
कैसे कर दूँ तुमको आश्वस्त?
शंकाएँ हों सारी निरस्त!

अक्षमता मेरी है यह भी,
नहीं खुल पाया मैं, मम्मा सम
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

सारे संदेश हैं मम्मा को,
सारे उपहार भी मम्मा को
हँसी-चुटकुले, मम्मा संग
रहती बिखेरती सारे रंग!
जो तुमको है घर ले आया,
नहीं उसने शायद बतलाया!

वह भी तो है अनजान किंतु,
है प्रेम भरा, मेरा यह मन
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

भार ये तुम पर है बिटिया
हो सराबोर अपनी कुटिया
ह्रदयंगत भाव जो हैं मेरे
जानों-पहचानों अब सारे
जानता कदाचित है वह भी
पर नहीं बताया, कहीं-कभी!

शायद पुरूषोचित अहंकार
हो फैलाता यह सारे भ्रम
ठीक खड़ा था पीछे मैं भी...
मुझको लेकिन, भूल गईं तुम!

अब बतलाता हूँ क्या करना है
बस 'म' को, 'प' से बदलना है
नहीं कहता, करो तुम सदा यही,
बस किया करो पर कभी-कभी
लालसा मेरे मन है यह भी,
उपहार कोई लाए बेटी!

उपहार, मेरा परिचय उसको
दे सकती हो अब, केवल तुम!
बन जाओ अब मिठ्ठू मेरी,
चाहे हों अम्मा हीं पहले...
मुझको ही पहले मानों तुम!!

.....और तुम्हारा समय शुरू होता है..., अब!!!!

- सत्येन भंडारी

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