शनिवार, 20 अगस्त 2016

"ऐसा भी रक्षाबंधन!!"

"भारतीय भाई-बहनों का अद्भुत उत्सव है, राखी!! ढूँढे से कोई अन्य मिसाल नहीं मिलती सारे विश्व में इसकी। भाई-बहन के अद्भुत प्रेम का प्रतीक! फेसबुक भरा पडा है, राखी बांधती बहनों के चित्रों, भाईयों के प्रसन्न चेहरों व ढेरों शुभकामना संदेशों से!!" दूरदर्शन पर कोई एंकर रक्षाबंधन का महत्व बता रही थी।

"पर क्या सचमुच ऐसा ही है? या मैं एकमात्र भाई हूँ, जिसके भाग्य में यह दुर्भाग्य लिखा है?", जैसे स्वयं से पूछ रहा था वह, "बहन या भाई के विवाह तक ही इस उत्सव का मूल भाव जीवित रहता है, उसके बाद सब भगवान भरोसे!", ...सागर की लहरों की भांति विचारों का अंधड उठा हुआ था मन में। इस अंधड में कब, बह कर बचपन में पहुँच गया था वह, पता ही न चला उसे।

इकलौती बहन सबकी प्रिय थी। सबसे अधिक पिता की। शायद इसीलिए थोड़ी जिद्दी भी थी। उसकी हर बात, सर-आंखों ली जाती। लाड़-प्यार ने मानिनी बना दिया उसे। इन सबके बावजूद उसे भी प्रिय थी वह। समय के साथ दोनों बडे हुए और एक दिन, शहर के ही एक संपन्न परिवार में, उसका विवाह हो गया। उसके विवाह के साथ ही, जैसे दुनिया ही बदल गई उन भाई-बहन की! बचपन की मासूमियत खत्म हो गई लगती थी उसे।

हर बार अपने आत्म-सम्मान के चीथड़े समेटे, व्यथित ह्रदय के साथ घर लौटता वह इस दिन। पिता के अवसान के बाद, माँ के कहे अनुसार, बडी जिम्मेदारी से सारे तीज-त्यौहार पर अपने कर्तव्य निभाता आया था वह। बहन का संपन्न किंतु रूढीवादी परिवार कभी खुश न हुआ। वे हर बात को अपनी हैसियत से तौलते और फिर ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया जाता कि अगली बार न आने की ठान लेता था वह। परिवार की विभक्ति के साथ ही उसके ह्रदय में आशा पल्लवित हुई थी। अभी तक परिवार के अन्य सदस्यों के बर्ताव की आड में वह समझ नहीं पाया था पर अब बहन-दामाद का रूप देख, उसकी सभी कामनाओं पर पानी फिर गया। आयु और योग्यता में कहीं न ठहरने वाले दामाद के अत्यंत कटु बोल, मानिनी बहन की गैरवाजबी अपेक्षाएँ, कभी कभी मन में क्रोध उत्पन्न करते, जिसकी अभिव्यक्ति से भूचाल आ जाने का डर लगता। अगली बार न आने का इरादा करने के बाद भी अब तक कभी व्यवहार में नहीं लाया था उसने।

भारतीय लडकियों पर दोहरी जिम्मेदारी होती है। उन्हें न केवल अपने ससुराल पक्ष का मान ही संभालना होता है अपितु पीहर के सम्मान का दायित्व भी उन्हीं पर होता है। कई बार घर में पत्नी या माता को समझाने के लिए इसी बात का सहारा लिया था उसने। रक्षाबंधन का भावनात्मक पक्ष हमेशा एक आस जगाए रखता कि कभी तो सब ठीक होगा! पर बीते कुछ वर्षों में बहन की कटुता भरी नाराजगी ने, दिल तोड़ दिया था सारे परिवार का।

रक्षाबंधन, भाई द्वारा बहन को अभय वचन देने का दिन है तो वहीं बहन के अपने भाई के सुख, मान और चिरंजीवी होने की कामना करने का दिन भी है। और फिर, ऐसे ही एक दिन, अब तक जबरन रोक कर रखा गया भूचाल आया, अपनी पूरी शक्ति के साथ, और सब कुछ तहस-नहस कर चला गया। उसने अपने दोनों हाथ जोड़ कर माफी मांगी, बहन-दामाद व बच्चों को आशीर्वाद दिया और अपनी तुच्छ भेंट और दो कौड़ी के आत्म-सम्मान को समेट निकल पडा बहन के घर से।

वह निकल तो आया वहाँ से, पर मन उसका, अब भी बचपन की मासूमियत वाले रक्षाबंधन को अनुभव करने की चाह रखता है। विधना कदाचित किसी बात पर रूष्ठ हैं उससे। घर में बेटे तो हैं, बेटी नहीं है! अपने परिवार की अन्य बेटियों में, मित्रों-पडोसियों की पुत्रियों में, 'बेटी' देखने का प्रयास करता रहता है। यहाँ तक कि फेसबुक की अपनी महिला-मित्रों में भी, बचपन वाली अपनी बहन को ढूँढने लगा है अब तो....

- सत्येन भंडारी

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