सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

"सटक सीताराम"

काका जोगिंदर सिंग 'धरती पकड़'..........सुना तो होगा यह नाम!! ये एक सामान्य नागरिक थे जो हमेशा राष्ट्रपति के चुनाव में शिरकत किया करते, बतौर उम्मीदवार। जीतने का प्रश्न ही नहीं था, पर चर्चा बडी होती इनके नाम की।

मेरे शहर, अकोला (महाराष्ट्र) के भी 'धरती पकड़' थे एक! चतुर्वेदी थे, पूरा नाम याद नहीं आ रहा। विधानसभा व लोकसभा के चुनावों में बडे उत्साह से उम्मीदवारी किया करते। 'साइकिल', चुनाव चिन्ह होता। चुनाव के दिनों में अपनी साइकिल को ब्रासो से चमकाए रखते और इसी पर बैठ कर ही सारा चुनाव-प्रचार करते अपना। निपट अकेले!! चाय की गुमटी, पान-सिगरेट की टपरियाँ और शहर का हर नुक्कड़, सभास्थल होते उनके। सत्तर वर्ष के पंडित चतुर्वेदी जी का उत्साह देखते ही बनता इन दिनों। यह समय सत्तर के दशक का पूर्वार्ध है।

पर हम बच्चों में इनकी लोकप्रियता कुछ अलग ही कारणों से थी। गोरे-चिट्टे, लंबे-छरहरे पंडित जी आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। लक-दक शुभ्र धोती-कुर्ता, चमकदार पॉलिश किए हुए जूता व गौर मुख पर शानदार चंदन-रौली का टीका, खूब फबता उनपर। इन सब विशेषताओं से अलग वह बात जो उनकी लोकप्रियता का कारण थी, वह थी उनका 'जय सिया-राम' के उद्घोष से भयंकर चिढ़ना। जब भी कोई नवागंतुक, उनका अभिवादन करते हुए कहता;

"जय सिया-राम, पंडी जी!!", तो वे समझाने के स्वर में कहते....

"जय राधे-श्याम बोलो बेटा....जय राधे-श्याम!!"

समझाना बेअसर होते देख, बेतरह चिढ़ जाते। धीरे-धीरे लोग चिढ़ाने लगे उन्हें। हम बच्चों के लिए बडी मजेदार स्थिति हो जाती। पंडित जी का क्रोध से लाल हुआ चेहरा देख, हँस पड़ते हम। ज़रा कल्पना कीजिए, पंडित जी सामने से आ रहे हैं और हममें से कोई अभिवादन कर रहा है.....

"पा लागी पंडिज्जी!!!"

"जीते रहो बचवा!!!", वे हाथ उठा आशीर्वाद दे रहे होते कि तभी कोई अन्य नारा लगा देता....

"जय सिया-राम पंडित जी!!!", और वे भड़क जाते.....चिल्ला कर कहने लगते;

"ठहर, ससुर के नाती!!! बताता हूँ तुझे...नालायक, हरामखोर मुझे चिढ़ाते हो??"

कई बार मारने भी दौड़ते। हम भाग जाते। कभी हाथ न आए उनके। पता नहीं क्या हाल करते जो हत्थे लग जाते। बस यही पता न था क्योंकि कभी किसी को धर ही नहीं पाए थे अबतक वे। शरारती तत्वों को पहचानने लगे थे और हम भी उन्हें देखते ही, 'सटक ले, सियाराम आ रहे हैं!', कह कर एक दूजे को सावधान कर देते। सारा शहर उन्हें, "सटक-सीताराम", के नाम से पहचानने लग पडा।

और फिर एक दिन, अपनी शाणपत्ती के चलते, हम धर लिये गये। हमारे पकड़े जाते ही सारी सेना भाग खडी हुई। हम कोहनियों को मोड़े, अपने हाथों व हथेलियों के बीच कान, गालों व सिर को छिपाये, अपनी आंखें मीचे, चीख-चीख कर माफी मांग रहे थे.....

"माफ कर दीजिये पंडित जी.....दुबारा नहीं करेंगें, इस बार माफ कर दीजिये!!!"

वे नहीं पसीजे। मुर्गा बना दिया हमारा। पांच ही मिनट में सारी हेकड़ी निकल गई। पसीने से लथपथ, हम उन्हें उनके ईष्टदेव का वास्ता देने लगे.....

"आपको श्रीकृष्ण भगवान की सौगंध, छोड़ दीजिये हमें.....आगे से नहीं करेंगे।"

वे सुनने को ही राजी नहीं। दस मिनट होते-होते हमारी हालत खराब हो चुकी थी। आखिर रोने लगे हम और बिसूरते हुए लानतें भेजने लगे उनपर......सजा तो मिल ही रही थी, मुंह खुल गया हमारा..

"अपने आपको पंडित कहलाते हो.....आखिर क्या फर्क है राम भगवान और कृष्ण भगवान में जो एक के नाम पर चिढ़ जाते हो और दूसरे के नाम पर प्रसन्न होते हो? इतनी देर से चिरौरी कर रहा हूँ, आप पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता!!! देख लेना आपके कृष्ण भगवान कितना पाप देते हैं? पिछले जनम में वही राम भगवान थे!!", कहते हुए और रोने लगे हम! हमारा रूदन तब और बढ़ गया जब पंडित जी को ठहाके मारकर हँसते देखा हमने। लगा, शायद पंडी जी को दया आ गई हो क्योंकि वे हमें सीधे खडे होने को कह रहे थे। हम खडे हो शरीर को सीधा कर रहे थे, भाग नहीं सकते थे। पकड़ रखा था उन्होंने। वे कहने लगे;

"क्यों? आ गई नानी याद? जानना चाहते हो क्यों चिढ़ते हैँ हम? सुनो.....तुम ससुर के नाती, बित्ते भर के लौंडे, ठीक से नाक नहीं पोंछ पाते हो, दिन भर 'हम-तुम एक कमरे में बंद हो' गाते रहते हो, कम से कम इसी बहाने भगवान का नाम तो ले लेते हो!! तुम्हारे माता-पिता को तो कोई चिंता है नहीं कि लौंडे, लफाडिये हो रहे हैं....वे भी ससुर 'बॉबी' के प्रशंसक हो रहे हैं.....तो हमने यह जुगत लगाई। पर बिटवा, तुमने जो यह बात किसी को बताई तो याद रखना, हमसे पाला है!! समझे कि नाहीं?"

हम, बालक बडे समझदार थे। समझ गए। किसी को कुछ बताया तो नहीं ही, पर दूसरे ही दिन से पंडिज्जी को चिढ़ाने में उत्साह दुगना हो गया था हमारा;

"जय जय सीताराम पंडित जी!!!"

वे भी उतने ही क्रोध से गालियां देते, पीछे पडे रहते हमारे!!!

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